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आप में ‘कलह’ का कारण : केजरीवाल की तानाशाही या पार्टी में ‘बढ़ता’ कद?

रोहित श्रीवास्तव
रोहित श्रीवास्तव
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आम आदमी पार्टी का वर्तमान विवाद बड़ा दिलचस्प है, ऐसा लगता है मानो किसी ने अच्छी-खासी ‘स्क्रिप्टिंग’ की हो, अरविन्द केजरीवाल इलाज़ के लिए बैंगलोर जाते हैं, इधर दिल्ली में केजरीवाल समर्थित आप के वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव पर धावा बोल देते हैं। दोनों को प्रस्ताव पारित कर बहुमत के साथ पी ए सी से बर्खास्त कर दिया जाता है। उसके बाद केजरीवाल के खिलाफ उनके ही पूर्व विधायक राजेश गर्ग द्वारा एक विवादास्पद स्टिंग रिलीज़ किया जाता है जो केजरीवाल की नैतिकता और राजनितिक आदर्शो पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जब बैंगलोर से अपना सफलतापूर्वक इलाज कराने के बाद दिल्ली वापस लौटे तो लगा ‘आप’ में आया भूचाल एक बार को थम सा जायेगा। एक तरफ जहां केजरीवाल समर्थित नेताओ और प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव के बीच बातचीत का दौर चलता है, तो दूसरी तरफ सोशल मीडिया के माध्यम से आप के नेताओ ने आपसी-सुलाह होने के संकेत भी दिए जाते हैं, पर केजरीवाल के एक और स्टिंग आने से साफ हो जाता है कि काफी कोशिशो के बाद भी आम आदमी पार्टी की ‘टूटन’ को कोई नहीं बचा सकता। आखिरकार उम्मीद के मुताबिक आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण सहित कई बागी आप नेताओ को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।

गौरतलब है प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव पार्टी में उनके द्वारा दिए गए सुझावो को अमलीजामा न पहनाए जाने की बात कर रहे हैं जिसमे पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र, वालंटियर की महत्वपूर्ण निर्णयों में सहभागिता और पारदर्शिता मुख्य बिंदु थे, दूसरी तरफ केजरीवाल कैंप के नेताओ का माना है की दोनों मिलकर अरविन्द केजरीवाल को संयोजक पद से हटाना चाहते थे। इस पूरे मामले का दूसरा पहलू यह भी है कि संभवत: प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ‘केजरीवाल’ की दिल्ली मे जीत के बाद पार्टी मे उनके बढ़ते कद से भी थोड़े ‘असंतुष्ट’ थे।

यह किस तरह की नयी-राजनीति सीखा रहे ‘आप’?

उल्लेखनीय है यह वही अरविन्द केजरीवाल है जो कुछ दिनों पहले आंतरिक लोकतंत्र, स्वराज और पार्टी में अनुसाशन और पारदर्शिता की दुहाई देते हुए बीजेपी और कांग्रेस को कोसते थे, राजनीती में प्रवेश करने के वक्त उन्होंने यहाँ तक कहा था की हम देश में एक अलग तरह की राजनीती करने आये है. केजरीवाल ही थे जिन्होंने कांग्रेस और बीजेपी को ‘आलाकमान-कल्चर’ के लिए बार-बार लताड़ा करते थे। नियिति देखिये की ऐसा संयोग बन चला है कि ऐतिहासिक जीत के साथ दिल्ली को दोबारा फतह करने वाले केजरीवाल खुद ‘आलाकमान’ बन, तानाशाह की तरह व्यवहार करते दिख रहे हैं। सच मानिये केजरीवाल ने सही कहा था की हम एक अलग तरह की राजनीती सिखाने आये हैं। ‘आप’ के इस राजनितिक विवाद के घटनाक्रम को देख कर तो कुछ ऐसा ही लगता है। शायद उनकी इस तरह की ‘नवजातीय’ राजनीति मे ही पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की  बैठक मे ‘लात-घूंसे’ चलते हैं, विरोध करने वालों की आवाज़ को दबाने की कोशिश की जाती है। अगर बागी फिर भी नहीं मानते हैं तो उन्हे (लात मार कर, जैसा तथाकथित स्टिंग मे कहा गया) बाहर निकाल दिया जाता है।

केजरीवाल का चुप्पीभरा-कदम किस और इशारा करता है?

पार्टी के वरिष्ठ और संस्थापक नेताओ प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को पीएसी एवं राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर का रास्ता दिखाने दिया जाना बहुत सारे प्रश्न खड़ा करता है मसलन दोनों भूषण और यादव आम आदमी पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेताओ मे से एक है जो पार्टी और अरविंद केजरीवाल के साथ शुरुआत से खड़े हैं। पहले इस मामले पर केजरीवाल की चुप्पी थोड़ा संदेह पैदा कर रही थी पर अचानक से बाहर आए एक ‘तथाकथित-स्टिंग’ मे एक बात साफ कर दी कि केजरीवाल यादव और भूषण से पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण बेहद नाखुश थे। भले ही उनकी स्टिंग मे अमर्यादित भाषा-शैली निराशाजनक और अप्रत्याशित है पर महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पार्टी के भीतर ऐसा क्या हुआ कि केजरीवाल, यादव और भूषण को लेकर इतने कुद्ध हो गए। क्या उनके पास बागियो द्वारा उठाए प्रश्नो और आपत्तियो का प्रभावी उत्तर नहीं था? या फिर वह पार्टी मे अपने ‘कद’ को लेकर थोड़े असुरक्षित महसूस करने लगे थे। याद रहे तथाकथित स्टिंग मे भी केजरीवाल गुस्से मे नई पार्टी बनाने की बात करते दिख रहे हैं।

स्पष्ट है की पार्टी की कलह खुल कर सामने आ गई है, इससे पूर्व इस विवाद को लेकर केजरीवाल की चुप्पी अत्यंत संदेहात्मक थी मसलन इस मामले पर उन्होने अपनी नाखुशी और दुःख बेशक जाहिर किया था, पर अन्य मुद्दो पर अपनी बेबाक राय रखने वाले केजरीवाल अपनी ही पार्टी के बेहद संवेदनशील अंदरुनी मामले पर (स्टिंग आने से पूर्व) एकदम शांत से थे।

क्या सत्ता के ‘लोभ’ में भटक गए केजरीवाल?

सत्ता ‘अर्थार्त’ पावर….कहते हैं ‘सत्ता’ बड़ी बुरी चीज़ होती है, मिलते ही आदमी (नेता) के रंग-रूप के साथ ‘राजनीतिक-स्वभाव’ में बदलाव आ जाता है, जब वो ‘विपक्ष’ में होता है तो अपने प्रश्न और बाते  बड़ी विनर्मता के साथ रखता है, जब उसी के हाथ में कड़ी मेहनत और संघर्ष के बाद सत्ता मिलती है तो सत्ता के सुख के साथ थोड़े ‘गुरुर’ में  आना स्वाभाविक सा लगता है। इसमें कोई शक नहीं है की दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का वर्तमान में राजनितिक करियर अपने ‘शिखर’ पर है। पर क्या इस ‘शिखर’ को बरकरार रखने मे कामयाब रहेंगे? या फिर जिस कम समय मे वह इस शीर्ष बिन्दु पर पहुंचे हैं, उसी तेजी से ‘निम्न-बिन्दु’ ली भी दूरी तय करेंगे? यादव और भूषण के जवाब न देते हुए उन्हे पार्टी से निकाल देना क्या सांकेतिक करता है? क्या केजरीवाल ‘सत्ता’ के लोभ मे वाकई भटक गए हैं? क्या वह आम आदमी पार्टी की ‘कुंजी’ अपने हाथ मे रखना चाहते हैं? यह वही केजरीवाल हैं जो सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात करते थे आज ‘सत्ता’ हाथ मे आने के बाद अपने ही बनाए ‘आदर्शो’ और ‘राजनीतिक-नियमो’ को सुविधानुसार भूल गए हैं। दिलचस्प है जब वह ताजे आए स्टिंग मे कहते हैं कि “मैं अपने 67 विधायक लेकर अलग हो जाऊंगा”।

खैर यह तो समय ही बतियाएगा कि ‘आप’ और केजरीवाल की राजनीतिक-यात्रा के अंत का ‘आरंभ’ शुरू हुआ है या फिर यह भी एक नई तरह की राजनीति का ‘प्रारम्भ’ है जिसकी शुरुआत बस थोड़े ‘भ्रम’ से हुई है।

~रोहित श्रीवास्तव

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