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व्यंग्य: जन्म-दिवस पर समझ पाया अपने ‘पैदा’ होने की वजह

रोहित श्रीवास्तव
रोहित श्रीवास्तव
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सवाल यह है कि मैं इस दुनिया मैं कैसे आया? कोई वजह तो जरूर रही होगी कि ‘मैं’ पैदा हुआ? इसका जवाब मुझे पैदा होते ही मिल गया था आज अपने जन्मदिन पर गौर किया तो समझ पाया।

‘मैं’ अपने माँ-बाप की आरज़ू था या फिर दादी की दुआओं का असर था कि फरिश्तों की दुनिया से सीधे फनफनाने वाली दुनिया मे आ टपका। खैर आने से पहले 9 महीने मैंने ‘विश्रामालय-रूपी’ माँ की कोख मे विश्राम भी किया शायद भेजने वाले ईश्वर को मालूम था कि ज़िंदगी-का-सफर इतना आसान नहीं होने वाला है। माँ ने वहाँ मेरा अच्छे से ख्याल रखा। जो भी खाती-पीती थी उसका एक हिस्सा मुझे भी देती थी। पापा भी मेरा हाल रोज पूछते थे।

दादी रोज मुझे 100-100 दुआए देती थी, ऊपरवाला हैरान था की उनका दुआओं का कोटा इतनी तेजी से बढ़ रहा है जितनी तेजी से शायद कोख मे मैं भी नहीं बढ़ रहा था।

और फिर एक दिन, ऊपर से आलाकमान का संदेश आया बिलकुल बिग बॉस की आवाज़ मे “भगवान आपको बताना चाहते है की आपका ‘कोख का सफर’ यही तक था, अब आपको संसार मे जाना होगा। यह सुनते ही मैंने फट से ‘माँ’ को लात मारी… होना क्या था ‘माँ’ को बड़ी तीर्वता मे ‘लेबर पेन’ शुरू हो गए। आनन-फानन मे माँ अस्पताल पहुँच गयी और डॉक्टर ने पापा से कहा “मुबारक हो बेटा हुआ है श्रीवास्तव जी’।

एक बात बताऊ जब बच्चा पैदा होने के बाद भी नहीं रोता तो डॉक्टर या नर्स ‘चुटकी’ काट या किसी और तरीके से बच्चे को रुलाने का प्रयत्न करती हैं। अब भईया, 9 महीने तक कुंभकरण की तरह सोएँगे तो चुटकी काटने पर ही तो रोएँगे, समझता नहीं है यार।

सुन रहा था मैं पापा ने खुशी मे लड्डुओ का भंडार बँटवा दिया था। कुछ ज़ोर-ज़ोर ताली बजाने वाले लोग भी आए थे मुझे सौ-सौ दुआए दे गए और पापा से पाँच सौ-पाँच सौ के नोट ले गए। मैंने सोचा सौदा घाटे का नहीं था। आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ था, मैं सबको टुकुर टुकुर देखता, मंद-मंद मुसकुराता और माँ की गोद से छूटने पर रोने लग जाता। अपने लोगो की पहचान हो गई थी मुझे। दादी रोज मेरी मालिश करती थी। बुआ रोज मेरे सर को सहलाते हुए सुलाती थी। मेरी बहन तो मेरे आने से बहुत खुश थी उसे बोलने-रोने वाला जीतता-जागता वाला गुड्डा जो मिल गया था।

“माँ, मेरे माथे पर एक ‘काला टीका’ लगाती थी जबकि नाक के नीचे एक ‘टीका’ भगवान ने पहले ही लगा कर ही भेजा था। मेरे आने से मानो मेरे परिवार और संसार मे खुशियाँ ही खुशियाँ थी शायद इसी खुशी के लिए ही पैदा हुआ था मैं “

आखिरी मैं यही कहूँगा बेशक आप खुद ‘खुश’ न रहे अपनी जाती ज़िंदगी मे, पर उस परिवार के लिए विषम परिस्थितियों मे भी चेहरे पर मुस्कान बनाए रखे जिसने आपके जन्म से ही आपको सराखो पर बैठाया है वो परिवार आपकी आँखों मे ‘मोतीरूपी’ आँसू और ‘दलिद्ररूपी’ गम कैसे देख सकता है।

(सच्चाई और व्यंग्य के मिश्रण वाला मेरा यह लेख ‘यथार्थ’ के बेहद करीब है)

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