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समय बदला…. साल बदला…. पर ‘आदमी’ तू न बदला!!

रोहित श्रीवास्तव
रोहित श्रीवास्तव
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समय भी बिलकुल नदी की धारा प्रवाह की तरह ही होता है, इसको जो दिशा दिखाओगे, उसी ओर बहेगा भी, उसी और बढ़ेगा भी। देखते-देखते 2014 का वर्ष कब बीत गया हमे मालूम भी नहीं चला। उम्मीद के मुताबिक इस बदलाव की लहर मे, और भी कई चीजे बदलनी चाहिए थी, पर निराशा ही हाथ लगी, कुछ भी नहीं बदला।


मैंने सोचा था बदलते समय मे अब साल मे 365 की बजाए 370 दिन हो जाएंगे, मोदी जी ‘काला-धन’ जरूर लाएँगे, केजरीवाल अपनी ख़ासी से छुटकारा पाएंगे, राहुल बाबा काँग्रेस को कहीं तो जीत दिलाएँगे, सलमान खान ‘किसी’ से ब्याह रचाएंगे, पाकिस्तानी अपनी नापाक हरकतों से पेशावर हमले के बाद तो बाज आएंगे, सनी लीओनी को किसी फिल्म मे साड़ी पहने एक साधारण भारतीय बहू के किरदार मे देख पाएंगे, कपिल शर्मा के शो मे ‘केआरके’ सेलेब्रिटी के तौर पर आएंगे, आसाराम पाखंडी रामपाल के आश्रम की खीर खाएँगे, साल मे एक बार नहाने वाले लोग ‘दिवाली’ पर भी नहायेंगे, आदित्य योगीनाथ ओवेशी के साथ मिल कर वंदेमातरम गीत गाएँगे.


लोकसभा चुनावो मे मिली मनमोहन सिंह को आज़ादी’ के बाद भारतवासी उन्हे सुनने को पाएंगे, आडवाणी जी पीएम मोदी के गुणगान गाएँगे, राजनाथ सिंह दाऊद और पाकिस्तान पर बयानबाजी से आगे बढ़ पाएंगे, नेताजी मुलायम सिंह यादव साइकिल पर बैठ कर हाथी पर बैठी माया बहन के हाथो ‘राखी’ बंधवाएंगे, आज़म खान शाहरुख के संग दोबारा अमेरिका जाएंगे, रजनीकान्त मंगल पर अपना ‘फार्म हाउस’ बनाएँगे, अरनब गोस्वामी टाइम्स नाव के एडिटर इन चीफ़ से आईबी और रॉ के चीफ़ ऑफ द चीफ़ हो जाएंगे, उनकी ड़ीबेट मे 2-4 भ्रष्ट नेता दिल के दौड़े पड़ने से ही परलोक सिधार जाएंगे।


पर यह ‘सब’ हो न सका। आज भी वही बासी केजरी-ख़ासी है। और वही केजरीबवाली गला है जो उनसे कभी-कभी उनसे कहता है “मियां कितना जबर्दस्ती का खासोगे, कहीं ‘खसरा’ न हो जाए? अरे तौबा तौबा, थोड़ी सी गनीमत रखो, तुम्हें खुदा का वास्ता, अगर ज्यादा किया तो जनाब “हम भी तुम्हारे शरीर-तंत्र के सामने ‘धरने’ पर बैठ जाएंगे? तब खाओगे कहाँ से?


प्रधानमंत्रीजी का जनधनयोजना का खाली खाता चीख चीख कर चिल्ला रहा है “ अरे। मोदीजी मुझे खुलवा तो दिया पर इसमे कुछ डलवाओ तो, ‘काला धन’ वापस लाओ तो, 15-20 लाख गरीब की झोली मे गिराओ तो। महंगाई की मार मे आज भी गरीब की कमर टूटी जा रही है। एक निर्धन की बिगड़ी क़िसमत मानो उससे रूठ रही है। आज भी उसकी ‘सूनी थाली’ है। कुछ घरो मे नहीं आती है लक्ष्मी भटक कर भी उजाला करने, ऐसे घरो मे न होली है, न दिवाली है, क्योकि बेरोजगारी और गरीबी से आम आदमी की जेब अभी भी खाली है। बस इतना बदला है आज की राजनेताओ की जुबान पर ‘आश्वासन’ की जगह निकलती भद्दी-भद्दी ‘गाली’ है। हिमेश आज भी ‘नाक’ से गाना और ‘खली’ मुह से खाना खाता है। वॉचमेन अब भी ‘ओ साब जी….ओ साब जी’ कह कर बुलाता है। पूरब से निकलता है आज भी ‘सूरज’, शादी तभी होती है जब निकलता है मुहूर्त।


दिल्ली मे अभी भी सर्दी से बुरा हाल है, अनु मालिक की आवाज़ मे आज भी न सुर है न ताल है, बेचारा पति आज भी अपनी बीवी के खर्चे उठा-उठा के बेहाल है, ज्यादा फालतू बोले तो बीवी का सीधा हाथ तो, उसका उल्टा गाल है। थप्पड़ की आवाज़ मे पति की गूंज निकलती है “एक तू ही धनवान रे गौरी…..बाकी सब कंगाल हैं”।


सचमुच जमाना बीत जाता है, साल बीत जाता है, आने-जाने वाला हर लम्हा गुजर जाता है…. एक बात अभी भी नहीं समझ पाया मैं, समय ‘आदमी’ को बदले या आदमी ‘समय’ को बदलता है।

(सच्चाई और व्यंग्य के मिश्रण वाला मेरा यह लेख ‘यथार्थ’ को छूने की कोशिश करता है)


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