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‘मेरी ज़िंदगी’ मुझसे ऐसा रूठी कि………

रोहित श्रीवास्तव
रोहित श्रीवास्तव
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इतने साल एक-सूत्रीय बंधन मे रहने के बाद भी ‘मैं’ और ‘मेरी ज़िंदगी’ बड़ी मशक्कत और प्रयत्न के बाद भी वर्षों से अस्तित्व मे रहे उस ‘अजन्मे रिश्ते’ को बचाने मे नाकाम रहे हैं जिसके तार सीधा इस मनमोहिनी-दुनिया के भाग्य-विधाता से जुडते हैं।

यह कोई पहला वाक़या नहीं है जब ‘मेरी ज़िंदगी’ मुझसे रूठी हो, पहले जब भी रूठती थी तो मान-मनव्वल के बाद ‘मान’ जाती थी पर इस बार मामला थोड़ा गंभीर दिखाई देता है। सच कहूँ तो मैं खुद अपनी ‘ज़िंदगी’ से पूर्णत: तंग आ गया था। रोज-रोज इसकी नयी-नयी अजीबोगरीब मांगो, अपेक्षाओ और ऊमीद से बढ़कर ‘ऊमीदो’ से ‘मैं’ इतनी विकटता से विचलित हो गया था की शंकाओ के बादल ‘लघुशंका जैसे अनियंत्रित-दबाव की भांति दिल और दिमाग पर ‘छा’ से जाते थे।

ऐसा लगता था मानो मेरा मन-मस्तिष्क दर्दभरी सारंगी, आनंदी संगीत और नारंगी धुन के साथ कष्टमयी आत्मीय गीत के ‘पीड़ारूपी सुर’ की सरगम को महसूस करने की कोशिश कर रहा हो।

खैर मैंने ‘ज़िंदगी’ से साफ शब्दों मे स्पष्ट कह दिया है कि अब तेरा ‘बोझ’ उठाने की शक्ति मेरे पास नहीं है। अगर तुझे नया ‘साथी’ ढूँढना है तो ढूंढ लो मुझे भी अब ‘तुझसे’ छुटकारा मिलेगा। बात अगर बात मानने कि हो तो बचपन से लेकर अब तक ‘ज़िंदगी’ की हर बात मानी है चाहे वो स्कूल-कॉलेज जाना हो, सुबह-सुबह चाय की चुस्की के साथ व्यायाम करना हो या फिर ईश्वर की साधना, सब कुछ ‘ज़िन्दगी’ को सँवारने के लिए ही किया। मेरे घर मे भी ‘ज़िन्दगी’ को सब मानते हैं। सभी ‘इसकी’ लंबी उम्र की दुआ करते हैं।

मुझ पर आरोप-प्रत्यारोप लगाती है आजकल मेरा ‘अफेयर’ गम,तनाव,डर और ‘एकाकीपन’ के साथ चल रहा है। अब इसे कौन समझाए ‘एकसाथ’ इन सबको मे कैसे झेल सकता हूँ? मुझे मालूम है यह मुझे ‘छोड़ने’ का बहाना ढूंढ रही है।


कहती है कि तुम मेरा पहले की तरह ख्याल नहीं रखते। कमबख्त मारी को कौन समझाए की मैं खुद ‘नीले आकाश’ मे खो कर मेरे गर्दिश के सितारों के बीच की दूरी मापने की कोशिश कर रहा हूँ। वैसे ‘मैं’ खुद ‘ज़िन्दगी’ की बेवजह और बेसमय मांग से परेशान हो गया हूँ। जब तक इसकी मांग पूरी होती है तो ‘खुश’ अन्यथा यह ‘ब्रेक-अप’ और ‘छोड़ने’ की धमकी देने लगती है।

अंत मे अपनी ज़िन्दगी को सिर्फ यही संदेश दूंगा कि जितना चाहे भाग ले तू मुझसे, भाग कर भला कहाँ जाएगी, मेरा अस्तित्व तुझसे से है, तेरा अस्तित्व मुझसे है, तू रूठती है, मैं मनाता हूँ और फिर तू लौट कर मेरी बाहों मे समा जाती है। ओ मेरी ज़िन्दगी….. तू रोज न जाने कितने ख्वाब दिखाती है। रुलाती भी है….. हँसाती भी है……जब भी ठिठुरता हूँ मैं दुखों की ठंडक मे….मुझे स्नेह की सिलाई और प्रेम की बुनाई से बनी चादर ओढा चेहरे पर ‘मुस्कान’ दे जाती है।

लेखक: रोहित श्रीवास्तव

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