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सचमुच…जिंदगी के बेहद करीब है ‘मौत’ 

रोहित श्रीवास्तव
रोहित श्रीवास्तव
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हाल मे ही जब ऑस्ट्रेलिया के युवा बल्लेबाज फिलिप ह्यूज़ के सर पर ‘यमदूतरूपी’ बाउन्स  वाली गेंद’ लगने से दर्दनाक-मौत हुई तो मैं सोचने पर विवश हो गया कि हम इंसान दुनिया की हर जंग तो फतह कर सकते है पर ‘मौत की जंग’ जीतना मुश्किल ही नहीं अपितु ‘नामुमकिन’ है जिसके सामने हर दुआ-दवा, डॉक्टर-हकीम क्या, यहाँ तक की स्वयं परमपिता-परमात्मा भी हिम्मत ‘हार’ जाते है। रामायण मे जब लक्ष्मण मूर्छित हो जाते है तो विष्णु-अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र अपने ‘अनुज’ की ऐसी दशा देख कर अत्यंत-व्याकुल और विचलित हो जाते है। वास्तविकता यही है की हम इन्सानो की ‘बेबसी’ और ‘लाचारता’ का आलम कुछ ऐसा है कि हमे यह भी नहीं पता होता की हमारी जीवनरूपी पतंग वो ऊपर बैठा ‘निर्दयी-ईश्वर’ कब काट दे। हम जितनी भी चाहे ‘चाँद-मंगल’ की दुर्गम यात्रा कर ले पर अंतत: हमारी जीवन-यात्रा थकहारकर सदैव ‘मौत’ नामक आखिरी स्टेशन पर आकर ही समाप्त हो जाती है। सटीक शब्दों मे कहूँ तो मौत जिंदगी का एकमात्र ऐसा ‘मज़ाक’ है जिस पर हँसना नहीं बल्कि ‘रोना’ आता है।

भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए यही संदेश दिया है कि ‘मृत्यु’ एक अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। आत्मा ‘अमर’ है और वह निश्चित समय के साथ अलग-अलग शरीर धारण करती है। जब जिस शरीर का समय पूर्ण हो जाता है आत्मा उसका त्याग कर देती है। इसे ही ‘मृत्यु’ कहा जाता है। हमे नहीं भूलना चाहिए यह ‘मौत का डर’ ही था जिसने कंश को अपनी प्यारी बहन और उसकी संतानों का दुश्मन बना दिया था। हरिनयकश्यप तो एक कदम आते जाते हुए अपने ही पुत्र ‘प्रह्लाद’ के प्राणो का दुश्मन बन गया था।

विडम्बना यह है कि ‘मौत’ के इस रहस्य को एक ‘आम मानुष’ कैसे समझ सकता है जब वो अपनी सारी ज़िंदगी जन्म से लेकर ‘मृत्यु’ तक परमात्मा द्वारा बनाए गए ‘मोह-माया’ के प्रेमरूपी-जाल एवं बंधन मे जकड़ा रहता है। अपनी माँ की कोख मे 9 महीने के ‘गर्भा-वास’ के सफर से लेकर बचपन, जवानी और फिर ‘बुढ़ापे’ की अपनी ‘जीवन-यात्रा’ मे न जाने कितने उतार-चड़ाव और अनुभवों से गुजरता है।

अंतिम समय मे भी जब उसकी सांस उखाड़ रही होती है और शरीर ‘आत्मा की गुलामी’ से आज़ादी पाकर इस ‘नश्वर-संसार’ से मुक्ति पा रहा होता है, उन क्षणो मे भी आदमी ‘मौत की सच्चाई’ को स्वीकारे बिना उन ‘मायावी-मकड़रूपी-रिश्तों’ को ज्यादा तवज्जो एवं अहमियत दे रहा होता जोकि उसके ‘आत्मीय-अस्तित्व’ को दुनिया मे प्रमाणित करते हैं। उसे ‘चिता’ की तो कोई ‘चिन्ता’ नहीं रहती पर संसार मे बनाए उन सभी रिश्तों की ‘चिन्ता’ जरूर रहती है जिनसे वो दिल और दिमाग दोनों से जुड़ा रहता है। इंसान उस परमेश्वर की ‘कठपुतली’ भर है जो उसे संसार मे भेजता है, जैसा चाहे ‘नचाता’ है और फिर मन भरने पर ‘वापस’ बुला लेता है।

कुछ लोगो का मानना है कि मरने के कुछ समय बाद भी इंसानी दिमाग और आँखें जीवित रहती है। यह तो मालूम नहीं की सच मे वो ‘खुली-आँखें’ अपने परिजनो के ‘आँसू’ देख पाती है या ‘जिंदा-दिमाग’ उनकी असहनीय पीड़ा और दर्द महसूस कर पाता है परंतु एक बात जरूर पुख्ते तौर पर सिद्ध हो जाती है कि सच मे ज़िंदगी के अगर कोई बेहद करीब है तो वो ‘मौत’ है। एक बड़ा वाजिब प्रश्न उठता है कि क्या आदमी मरने के बाद भी उतना ही ‘मजबूर’ और ‘असहाय’ होता है जितना वो ‘जिंदा’ रहने पर रहता है?

imagesएक बात समझ से बिलकुल परे है की धर्मराज चित्रगुप्त भगवान किस हिसाब से मनुष्य के कर्मो का लेखा-जोखा करते है? मान्यता है की इंसान के पिछले जन्म के कर्मो के मूल्यांकन के आधार पर ही ईश्वर उसके अगले जन्म के ‘सुख और दुख’ भोगने का निर्धारण करता है। अगर मैं यहाँ बात करूँ ऑस्ट्रेलियन बल्लेबाज फिलिप ह्यूज़ की या फिर किसी अन्य नौजवान की जो अकाल मृत्यु का शिकार हुआ हो, तो ठीक है ‘फिलिप’ या किसी दूसरे ने अपने पिछले जन्म मे कुछ ऐसे कर्म किए होंगे जिससे इस जीवन मे उन्हे ‘अल्प-आयु’ प्राप्त हुई। अब मेरी समस्या यह है कि उस दिवंगत नौजवान से जुड़े लोगो के कर्मो मे भी क्या खोट थी जिससे उनको किसी अपने को कम उम्र मे ही गँवाना पड़ा? कोई उसमे उसकी पत्नी है, बेटा-बेटी, माँ-बाप, बहन-भाई या कोई भी ऐसा रिश्ता जो प्रेम और विश्वास की नींव पर खड़ा हुआ हो। सोचिए वही इंसान दुनिया मे अपने साथ कायनात की हर खुशिया लाया होगा और समय का फेर देखिये वो जब जग से अलविदा लेता है तो अपने परिजनो की आँखों मे केवल ‘आँसू’ और ज़िंदगीभर का गम छोड़ जाता है।

‘मौत’ भी बड़ी अजीबोगरीब चीज़ है जो समझ मे तो आती है पर महसूस नहीं होती और जब महसूस होती है तो ‘समझ’ नहीं आती। यह इन्सानो की भावनाओ और ऊमीदों के साथ अच्छा खेलती है। इसके कारनामे भी बड़े-बड़े हैं। पहाड़ से गिरी कार मे बैठे सभी लोग दुनिया से रुकसती ले जाते हैं पर एक 2 साल की मासूम बच्ची को खरोच तक नहीं आती। कहावत है न ‘जाको राखे साइयां मार सके न कोय..बाल भी बांका ना कर सके जो जो जग बैरी होय’। दूसरी तरफ बिलकुल फर्क नहीं पड़ता कि आप चाहे मृतूंजय जांप जपे या फिर चेहरे पर सुरक्षा के लिए ‘हेलमेट’ पहने अगर आपकी मौत नजदीक आ गई है तो आपसे गले लगे बिना उसका भी ‘दम’ नहीं निकलता। हम देखते हैं एक हुष्टपुष्ट और शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ आदमी तनाव मे संसार से तंग आकर फांसी लगाकर आत्म-हत्या कर लेता है पर फुटपाथ या मंदिर की सीढ़ियों पर भीख मांग रहे उस व्यक्ति को जोकि शरीर से भी विकलांग है, मरने का ख्याल तक नहीं आता है। वास्तव मे यह भी जीवन और मृत्यु का अद्भुत एवं अद्वितीय रंग है।

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