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कोई मुझे मेरी ‘मासूमियत’ लौटा दे :(

रोहित श्रीवास्तव
रोहित श्रीवास्तव
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न पता था हमे यह ‘दुख’ क्या होता है

न पता था हमे

यह ‘दर्द’ कैसे होता है

जब भी उगते हुए सूरज की लपटे

खुली आँखों पर पड़ कर

मेरे प्रकाशमय-संसार को  ‘अंधमय’ बनाती

मेरी ‘वयस्कता’ का मुझे एहसास दिलाती

तब फिर दिल की आह से बस

एक आवाज़ निकलती

लौटा दे…लौटा दे…. कोई मुझे

कोई ‘मुझे’ मेरी मासूमियत लौटा दे

क्या ‘शकसियत’ थी मेरी

याद है मुझे

न भूल पाया हु उस मासूम ‘रोहित’ को

डरा करता था जो अपनी ही ‘आहट से’

रात के अंधेरे मे ‘शियार’ के गावन से

लिपट जाता था जो ‘दादी के पल्लू से’

मित्रता थी उसकी पड़ोस के कल्लू से

कितना मजेदार था वो ‘साँप-सीधी’ का खेल

वो गाँव की मिट्टी और बगिया का ‘बेल’

‘वयस्क’ बन गया हूँ मैं

दुनिया कहती है

अब नौकरी पे जाना

दुनियादारी को निभाना

न जाने और क्या-क्या ‘रोहित’ झेल

जब ‘मारियो’ के ड्रैगन मारता था

तो बहुत मजा आता था

आज चाइना के ‘ड्रैगन’ की

बात करने लगा हूँ

अब दिल जल जाता

वो सुकून नहीं है ज़िंदगी मे

जो मे ‘बचपन’ मे पाता

इसलिए तो कहता हूँ

कोई मेरा बचपन लौटा दे

कोई मेरी मासूमियत लौटा दे

एक बार फिर से दिल मे वही

मासूम ‘रोहित’ को जगा दे

एक बार फिर कहता हूँ दिल से

कोई मेरी मासूमियत लौटा दे

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